Garbage Management

Team MyGov
June 26, 2024

शहरों में कूड़ा प्रबंधन पर अभी बहुत काम बाकी है

जब भी शहरी क्षेत्रों में कूड़ा प्रबंधन से जुड़ी बात होती है, तो दो बड़ी चिंताएं सामने आती हैं- म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (एमएसडब्ल्यू) और दूसरा सीवेज। हालांकि शहरी क्षेत्रों में और भी तरह का कूड़ा चिंता का सबब है, जैसे इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट, निर्माण कार्यों से निकलता मलबा, अस्पताल या बायोमेडिकल वेस्ट और प्लास्टिक वेस्ट। शहरों में कूड़े का कुप्रबंधन न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषण पैदा कर रहा है बल्कि इससे मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का उत्सर्जन भी बढ़ रहा है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक भारत के शहर हर साल 58 मिलियन टन कूड़ा पैदा करते हैं। जिस गति से कूड़ा बढ़ रहा है, अनुमान के मुताबिक साल 2030 तक यह 165 मिलियन टन और 2050 तक 436 मिलियन टन तक पहुंच जाएगा। हालांकि जब से स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत हुई है, शहरों में ठोस अपशिष्ट के ट्रीटमेंट की क्षमता 26 हजार टन प्रतिदिन (18%) से बढ़कर 1 लाख टन प्रतिदिन (70%) तक पहुंच गई है।

शहरी क्षेत्रों में कूड़ा प्रबंधन और इसके निष्पादन में सुधार हुआ है, लेकिन कूड़े को यहां-वहां फेंककर कूड़ाघर बना देने का हमारा इतिहास रहा है, जहां हर तरह का कूड़ा फेंक दिया जाता है। इससे मिट्टी, भूजल प्रदूषित होता है, ऐसे कूड़े के ढेर में आग लगने से मीथेन निकलती है, जिससे जीएचजी लेवल बढ़ता है।

शहरों में प्लास्टिक की पैकेजिंग भी बड़ी समस्या है। ये दुनियाभर में गंभीर है और प्लास्टिक कूड़ा नदियों में मिलकर समुद्र को दूषित कर रहा है। यूएनईपी के मुताबिक हर सेकंड, करीब एक ट्रक प्लास्टिक समुद्र में मिल रहा है। अगर इस पर काबू नहीं किया गया तो 2050 तक समुद्री कूड़ा मछलियों से ज्यादा हो जाएगा।

सीवेज की समस्या भी गंभीर बनी हुई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार (2020-21) शहरी क्षेत्रों में 72,368 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) सीवेज निकलता है, जबकि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की मौजूदा क्षमता 36,842 एमएलडी ही है।
हालांकि इनकी असल कार्यक्षमता और कम है। जितना भी सीवेज निकलता है, उसके 28 फीसदी का ही ट्रीटमेंट हो पाता है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से भी कीचड़ निकलता है, इसका भी विधिवत निपटारा जरूरी है और ज्यादातर शहरों में इसके लिए आधारभूत ढांचा नहीं है।

गैरनिष्पादित सीवेज के जमीन पर या पानी में मिलने से ये प्रदूषित हो रहे हैं। इस विषय पर नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि सीवेज के ट्रीटमेंट की कमी के कारण भारत में जल-जनित बीमारियों के इलाज में 15 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च होते हैं।

ज्यादातर शहर इस तरह की सीवेज ट्रीटमेंट सुविधाएं इसलिए नहीं जुटा पा रहे हैं क्योंकि इनके निर्माण के साथ, संचालन और प्रबंधन में बहुत पूंजी लगती है और अधिकांश सीवेज प्लांट्स को चलाने में बिजली भी बहुत ज्यादा खर्च होती है।

इसलिए ये जरूरी है कि शहर और कस्बे मिलकर, घनी आबादी वाले इलाकों के लिए केंद्रीकृत सीवेज सुविधा और ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण करें। वहीं जहां आबादी कम है, वहां सोर्स ट्रीटमेंट सुविधाओं (जैसे रूट ज़ोन सिस्टम) को विकेंद्रीकृत करें। सूरत इसका उदाहरण है, जो सीवेज को ट्रीट करके इंडस्ट्रीज़ को बेचकर हर साल 150 करोड़ रु. कमाता है।

द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) अपनी 50वीं वर्षगांठ बना रहा है। पर्यावरण से जुड़े ऐसे कई मुद्दों से निपटने के लिए टेरी ने स्थानीय सरकारों के साथ मिलकर कई कदम उठाए हैं। इसमें जीआईज़ी की मदद से पणजी में शुरू हुआ शॉप विद योर वेस्ट अभियान शामिल है, जहां कुछ किराना स्टोर किराने के बदले में रिसाइकिल योग्य कूड़ा लेते हैंं। बहरहाल, भारत में पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और सस्टेनेबल शहरी वातावरण बनाने के लिए व्यापक और नई अपशिष्ट प्रबंधन रणनीतियां जरूरी हैं।

डॉ. सुनील पांडे, निदेशक सर्कुलर इकोनॉमी एंड वेस्ट मैनेजमेंट, द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीटयूट (ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

Total Comments - 0

Leave a Reply